बहुत बेरुखा है तेरा यह शहर।
ना मुहब्बत की खुशबू, ना अपनो का घर।
तेरा शहर तो रोशन है दिखावे से,
पर इंसानियत मर गई है हवाओं में।
यहां रिश्ते भी जैसे सौदे बन गए,
ग़म के वक़्त सब पर्दों में छिप गए।
जिनसे उम्मीद थी, वही बेगाने हुए,
सपने भी यहां अधूरे अफ़साने हुए।
अब लौट चलूं उस पुराने गांव में,
जहां प्यार अब भी रहता है छांव में।
बहुत बेरुखा है तेरा यह शहर।
ना मुहब्बत की खुशबू, ना अपनो का घर।
No comments:
Post a Comment